शिक्षा........EDUCATION .........के व्यवसायीकरण
भारत में शिक्षा
के क्षेत्र का
क्या महत्व है
ये किसी को
बताने की जरूरत
नहीं है। हमारे
देश के करोड़ों
बच्चे हर सुबह
अपना बस्ता लेकर
स्कूल जाते हैं।
हर माता-पिता
की तमन्ना रहती
है कि उनका
बच्चा पढ़-लिखकर
खूब बड़ा बने
और दुनिया में
खूब नाम रोशन
करे। इन स्वप्नों
को पूरा करने
में स्कूल और
हमारे देश की
शिक्षा व्यवस्था बहुत बड़ी
भूमिका निभाते हैं। लेकिन
विडंबना है कि
लोगों के जीवन
को गढ़ने वाली
यह पाठशाला आजकल
एक ऐसे भयावह
काले वातावरण से
घिरती जा रही
है जिससे निकलना
फिलहाल तो काफी
मुश्किल नजर आ
रहा है। यह
काला स्याह वातावरण
व्यावसायिकता का है।
वो व्यवसायिकता, जिसने
अच्छी शिक्षा को
सिर्फ रईस लोगों
की बपौती बनाकर
रख दिया है
और साधारण तथा
मध्यमवर्गीय परिवार अब बड़े
स्कूलों को दूर
से टकटकी लगाकर
देखते हैं और
सोचते हैं कि
काश उनका बच्चा
भी ऐसे स्कूलों
में पढ़ पाता।
अब आप लोगों
के लिए एक
जानकारी। कि भारत
में स्टेट पीरियड
यानी आजादी के
पहले स्थापित हुए
कुछ स्कूलों का
आज भी बहुत
नाम है। ये
स्कूल अपनी उच्च
स्तर की शिक्षा
के लिए देश
में ही नहीं
पूरी दुनिया में
अपना नाम बनाए
हुए हैं। इन
स्कूलों की लिस्ट
में कुछ स्कूल
आजादी के बाद
भी जुड़े हैं।
इन स्कूलों को
शान से कॉलेज
भी कहा जाता
है। लेकिन आम
बातचीत में इन्हें
पब्लिक स्कूल कहा जाता
है। इनकी संख्या
देश में नौ
है। ये पब्लिक
स्कूल हैं ग्वालियर
का सिंधिया स्कूल,
कोलकाता का बिशप
स्कूल, राजकोट का राजकुमार
कॉलेज, अजमेर का मेयो
कॉलेज, इंदौर का डेली
कॉलेज, देहरादून का दून
स्कूल, दिल्ली का दिल्ली
पब्लिक स्कूल आदि। इन
स्कूलों में प्रतिवर्ष
फीस के रूप
में प्रति छात्र
एक लाख से
दो लाख रुपए
खर्चा आता है।
तो साहब ये
स्कूल पब्लिक स्कूल
जरूर हैं लेकिन
ये पब्लिक के
लिए हैं नहीं,
आम लोगों को
इन शानदार स्कूलों
से दूर ही
रखा गया है,
बस पब्लिक सिर्फ
इनके नाम के
साथ, और नाम
के लिए ही
जुड़ी हुई है। अब बात स्थानीय
स्कूलों की करते
हैं। इंदौर, जयपुर,
पूना, हैदराबाद जैसे
बी ग्रेड शहरों
(बी ग्रेड यानी
जो देश के
चारों महानगरों में
नहीं आते लेकिन
महानगर बनने की
ओर अग्रसर हैं)
में तमाम ऐसे
स्कूल हैं जो
वाकई पब्लिक के
लिए हैं लेकिन
उन्होंने एक नई
विडंबना पैदा कर
दी है। इन
स्कूलों में अपने
बच्चों को ४-५ साल
पहले जिन माता-पिता ने
५ हजार रुपए
सालाना फीस में
भर्ती किया था,
उन स्कूलों में
इतने वर्षों में
फीस बढ़कर २५-३५ हजार
रुपए साल हो
गई। यानी चार-पाँच साल
पहले की फीस
के मुकाबले पाँच
से छह गुना
ज्यादा। तो क्या
वाकई पिछले पाँच
सालों में हमारी
कमाई में पाँच
से छह गुना
इजाफा हुआ है।
और मान भी
लेते हैं कि
हुआ है तो
ऐसे कितने प्रतिशत
लोग हैं जो
इस स्तर की
कमाई कर रहे
हैं। इंदौर में
रहते हुए मैं
आज भी ऐसे
कई परिवारों को
जानता हूँ जो
तीन हजार रुपए
में अपने परिवार
का महीना भर
पेट पालते हैं,
तो क्या वे
ऐसे स्कूलों के
बारे में सोच
भी सकते हैं
जो उनके बच्चे
को महीने भर
पढ़ाने के बदले
३ हजार रुपए
मांग रहा है......???
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अभी इस सेशन
में मैं अपने दोस्त के
बच्ची को
गढ़मुक्तेश्वर के एक स्कूल
में ले गया।
वो स्कूल यहाँ
का जाना-माना
है। उन्होंने दो साल की
छोटी बच्ची को
एडमिशन देने के
लिए 10 हजार
रुपए माँगे। मैं
भौंचक्का रह गया
क्योंकि ये उनकी
फीस थी कोई
डोनेशन नहीं। अरे भाई
एक साल में
आप ऐसा क्या
निहाल कर देंगे, 2 साल के
एक बच्चे के
साथ कि आपको 10 हजार रुपए
दे दिए जाएँ।
इतने रुपए जितने
में हमारी तो
पूरी पढ़ाई ही
हो गई। क्या
इसी वजह से
लोग एक बच्चे
के बाद दूसरे
बच्चे के बारे
में सोच नहीं
रहे हैं, क्योंकि
वे जानते हैं
कि इतनी महंगी
परवरिश वे कहाँ
से दे पाएँगे......???
........... लोग अपना पेट
काटकर ऐसे फाइव
स्टार स्कूलों में
अपने बच्चों को
पढ़ा रहे हैं
बिना ये सोचे
कि क्या ये
स्कूल वाकई ऐसा
कुछ उनके बच्चों
को दे रहे
हैं कि वो
१२ साल में
कई लाख रुपए
उन स्कूलों को
दे दें। हालांकि
मैंने ये 10
हजार रुपए कम
ही बताए हैं।
दोस्तों
, कालांतर में इस
व्यवसाय बनती शिक्षा
का क्या होगा,
मैं नहीं कह
सकता लेकिन इतना
तय है कि
सरकारी स्कूल अपनी सिकुड़ती
भूमिका में हैं
और जिस देश
के सरकारी स्कूलों
में १८ करोड़
से ज्यादा बच्चे
पढ़ रहे हों,
उस देश में
सरकारी स्कूलों में पढ़ाई
करने वाले बच्चों
को नाकारा और
ठुस्स करार दे
दिया जाता है,
ये निहायत ही
दुख वाली बात
है। हम मानते
हैं कि हमारी
सरकार शिक्षा को
राज्य स्तर में
बाँटने के कारण
स्कूली शिक्षा का स्तर
बनाए रखने में
पिछड़ गई लेकिन
केन्द्रीय विद्यालयों की सफलता
बताती है कि
स्कूली लेवल पर
शिक्षा का अच्छा
स्तर बनाकर रखा
जा सकता है
बशर्ते केन्द्र इसमें दिलचस्पी
ले। केन्द्र को
यह भी सोचना
चाहिए कि वो
आम जनता को
क्यों इस प्रकार
लुटने दे रही
है। इन व्यवसायिक
निजी स्कूलों के
स्तर की ही
शिक्षा मिशनरी स्कूल (मसलन
सेंट पॉल, कॉन्वेन्ट,
सेंट जेवियर, सेंट
रैफल, सेंट नारबर्ट
आदि) भी दे
रहे हैं और
अपेक्षाकृत काफी कम
फीस में, तो
कुछ स्कूलों को
ऐसा अधिकार क्यों
कि वो बच्चों
के भोले-भाले
अभिभावकों से एक
साल की पढ़ाई
का आधा लाख
रुपया वसूल ले।
मुझे लगता है
कि मैंने आज
कई लोगों की
दुखती रग पर
हाथ रखा होगा,
ये मेरी भी
दुखती रग है
लेकिन क्या करें
फिलहाल इसका कोई
इलाज नहीं दिख
रहा है। अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (एबीवीपी)
ने केंद्र की यूपीए सरकार पर शिक्षा के व्यवसायीकरण का आरोप लगाया है। परिषद का कहना है कि सरकार शिक्षा के व्यवसायीकरण पर अंकुश लगाने, शिक्षा
की
स्वायत्तता को बढ़ावा देने एवं छात्रों के लोकतांत्रिक अधिकारों का सरंक्षण करने में नाकाम रही है।
अच्छा लगने पर ब्लॉग समर्थक बनकर मेरा उत्साहवर्द्धन एवं मार्गदर्शन करें |
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sunder lekh......
उत्तर देंहटाएंएक सशक्त सार्थक आलेख के लिए आपका बहुत बहुत आभार….
उत्तर देंहटाएंआपकी विवेचना सराहनीय है…..काश कि यह बात कभी निर्णायक शक्तियां(सरकार) समझ पायें और इन सुझावों को अंगीकार कर देश के कर्णधारों को मजबूत कर देश को सुदृढ़ करने की दिशा में कुछ कर पायं.
हाय रे क्षिशा................
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